Friday 14 February 2020

अनकही कहानियाँ



पहली कहानी - कमरा 


अगर कुछ कहानियों को न कहा जाये तो क्या वो अपने में एक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड लिए अन्नत की सैर पर यूँही मंडराती रह जाएँगी? या फिर, वो पहुंचेंगी एक किनारे तक और रेत पर सीपियों की तरह पसर जाएँगी? क्या उन सीपियों को अपने हाथों में लेकर कोई ये सोचेगा कि वो जीवंत थीं कभी? क्या होगा उन सीपियों जैसी कहानियों का, अगर उन्हें कोई हथेली न मिले सदियों तक वितरित होने के लिए? सीपियाँ सड़ जाएँगी और कहानियाँ मर जाएँगी।

मैं उस छोटे कमरे के बारे में एक कहानी लिखना चाहती हूँ; जिसे मैंने देखा था कलकत्ता के कॉलेज स्ट्रीट से घर  (लेक टाउन) वापस जाते वक़्त| एक पुराने अंडरपास रेलवे ब्रिज से महज कुछ मीटर दूर स्थित वो कमरा एक पुराने मकान के ऊपर बना था| मकान के ऊपर कमरा? हाँ. बनावट से साफ़ जाहिर हो रहा था कि वो अलग से बनायी गयी संरचना है| बस ६ फ़ीट चौड़ी और ५ फ़ीट ऊँची| किसी छोटे कद के व्यक्ति का कमरा मालूम पड़ता था| कमरा इतना छोटा और बेढंगा था मानों किसी ने जल्दबाज़ी में जैसे तैसे बनवा दिया हो| और जब तक उसे पुराने अंडर पास के ऊपर से रेल न गुज़र जाये, मैं एकटक देखती हूँ उस कमरे को|

कमरा बस ईंटों का बना था| उसपर न तो सीमेंट किया गया था और न ही कोई रंग पोता गया था| एक चटख गुलाबी रंग के घर क ऊपर बना बेरंग कमरा आखिर किसकी नज़र नहीं खीचेगा? कमरे में एक टेढ़ी मेढ़ी  लगभग आयात के आकार की खिड़की दक्खिन की और खुली थी| उससे भी अजीब थी खूँटी पर टंगी हुई साइकिल। हरे रंग की चौबीस इंचिया खिड़की के बाहर लटक रही थी, और उसे गुदरी और रस्सियों से ऐसा बाँधा गया था जैसे वो सबसे कीमती चीज़ हो उस घर में रहने वाले की|  मकान मेरी बायीं ओर वाली खिड़की से दिख रहा था, ठीक दो गज की दूरी पर| फिर मैंने गाड़ी की दूसरी ओर थोड़ा खुद को खसकाया, कड़ी धुप का एक थपेड़ा आया और मेरे चेहरे को स्तंभित करता दूसरी खिड़की से बाहर चला गया| दखिन की तरफ धुप इतनी तेज़ थी कि मुझे वापस अपने स्थान पर जाना पड़ा| इतनी कड़ी धुप में भी उस कमरे की खिड़की खुली थी| क्या उस कमरे में रहने वाले व्यक्ति को गर्मी नही लगती? थोड़ी दूर खड़ा बरगद क्या पहुंचा पाता होगा अपने छाँव को उस कमरे तक, मैंने विचार किया?

गाड़ियाँ जीवित हो उठीं लेकिन किसी सरीसृप की तरह रेंगते हुए एक दो- ढाई गज ही चल पायीं महज| वो कमरा अब ठीक मेरी गाड़ी की खिड़की के ऊपर था| बेजान नहीं था वो कमरा| बल्कि वो तो कमरा ही नही था| अपने में एक सम्पूर्ण घर था वो| मैंने पहली बार देखा मकान के ऊपर एक घर| बाहर से जितना बदरंग, अंदर उतना ही रंगीन|  ठीक मकान वाला गुलाबी रंग अंदर पोता हुआ था| एक छोटा टेलेविज़न एक संकरे लकड़ी के कुंदा पर रखा था| किसी स्त्री एवं शिशु के कपड़े पास-पास टंगे थे| लगभग पांच फ़ीट ऊँचे घर में टंगना कर्णरेखांकित था| टेलीविज़न सेट के बगल में एक कैलेंडर टंगा था| बाहर से मायूस मालूम पड़ता ये घर अंदर से अत्यंत जीवित था| सरीसृप में भी जान वापस आ गयी| गाड़ियाँ आगे बढ़ने लगीं, मैंने सर तिरछा करते हुए देखा, इस बार मुझे एक गुलाबी मकान दिखा, जिसके बाहर का हरे रंग का दरवाजा दक्खिन की तरफ खुला था| घर सफ़ेद चूने से पुता था और दीवारें खाली थीं| दो प्लास्टिक की खाली कुर्सियां इंतज़ार कर रही थी मकान को घर बनाने वाले का|