Tuesday 31 March 2020

घर से निकलते ही..... कुछ दूर चलते ही - कोरोना सम्बंधित पोस्ट


कलकत्ता
३१.०३.२०२०

                                               

उदय चोपड़ा के जीवन में आप सभी का स्वागत है| घर पर रह कर कुछ न करना भी एनर्जी कोन्सुमिंग  हो सकता है, यह तो आपको अभी तक पता चल ही गया होगा| वैसे भी साइकोलॉजिकल फटीग  शब्द शायद ही लोगों की आम शब्दकोष का हिस्सा बना है कभी| ऐसा मालूम होता है जैसे कोरोना वायरस के साथ-साथ नींद का भी कोई वायरस हवा में फ़ैल गया है| दिन और रात में जितना भी सो लो, फिर से आँखें उनींदी हो जा रही|

आज तो सिर्फ १८ सीढ़ियां चढ़कर पड़ोसी के गमले से पुदीना चुराने में थक गए हम| पता नहीं कैसे डेली वेज वर्कर्स और माइग्रेंट वर्कर्स  अर्थात दिहाड़ी और औपनिवेशिक मजदूर देश की राजधानी और महानगरों को छोड़ पैदल घर वापस जाने का फैसला किये होंगे| लगभग सभी मज़दूरों की मंज़िल बिहार और उत्तर प्रदेश थी| वही बिहारऔर उत्तर प्रदेश जहाँ के लोगों पर आधारित गालियां देना कूल  होने का समानार्थक मन जाता है; खासकर हमारी राजधानी दिल्ली में| कई तस्वीरें सोशल मीडिया पर अब भी वायरल हो रही हैं, लोग सर-हाथों पर सामान लिए कई सौ किलोमीटर चलने को अडिग थे| मेन्टल लेबर  का लोहा तो साल दर साल के कॉम्पिटेटिव एग्जाम  में यू.पी. बिहार वाले दर्शाते हैं ही, चलो अच्छा है लोगों के सामने फिसिकल लेबर  की भी सच्चाई सामने आ गयी| उल्टी गाली पड़ गयी धर्मता के तरफ से गाली देने वाले पर| देर ही सही सरकारी बसें उन्हें लेकर गयीं जहाँ उन्हें जाना था| जहाँ उन्हें जाना था इसलिए लिखे क्यूँकि हम जब भी उनसे सम्बंधित पोस्ट शेयर करते है लोग हमसे पूछते है कि आखिर उनको जाना कहाँ था| अब हम क्या जाने? घर जाना होगा शायद| बूढ़े माँ-बाप के पास खेत जोतने, धान कूंटने, आराम करने, डर से सहमकर छिपने, परिवार से दुःख बाटने, कच्चे जमीन पर चैन से सोने, देह न टूटने का मज़ा लेने, बचाये पैसों से कुछ दिन आराम से जीने| 


अब अपने बारे में बतियाते है थोड़ा| सुनियेगा न? नींद तो नहीं आ रही न? हमारे जैसे लोग जो ज्यादातर समय घर पर बिताते हैं, वो भी आजकल मन ही मन कोरोना को कोसते बाझ नहीं आ रहे| शरीर तो हम सबका फिजिकल वर्क  से बच गया है; लेकिन मेन्टल वर्क  को कैसे रोका जा सकता है? दिन भर कोरोना सम्बंधित समाचार सुनकर दिमाग पर जो ज़ोर पड़ रहा वो साइकोलॉजिकल फटीग  जैसी अवस्था की ओर लिए जा रहा हम सबको| सोशल मीडिया  से लेकर फोन कॉल  तक, सब जगह बस कोरोना ही इम्पोर्टेन्ट टॉपिक बनकर घुस गया है| अब तो बेस्ट फ्रेंड  से भी कोरोना सम्बंधित चुगली होती है, और बॉय फ्रेंड से कोरोना सम्बंधित प्रेम| 

सोशल मीडिया पर मेमे सब भी सड़ गया है| कुछ नया आता ही नहीं| बोर हो गए है फेसबुक और व्हाट्सप्प करते करते| कल रात तो मन उलटी वाला हो गया| ऐसे समय में भी लोग ज़हर उगलने वाला पोस्ट डाल रहे हैं और हंस रहे हैं मजबूरों की मजबूरी पर| अपने प्रिविलेज्ड वर्ल्ड  के बाहर झांकेंगे तब न देख पाएंगे लेबर फोर्स  के पैरों पर पड़े छाले| सिर्फ प्रिविलेज्ड  के बारे में बोलना नाइंसाफ़ी होगीओप्पोरचुनिस्ट्स  के साथ| एक किस्सा सुनाते है| पिछले साल अक्टूबर महीने में हमारे पटना में बाढ़ आया था| हमारा परिवार तीन दिन तक किसी तरह जितना पिने लायक पानी घर में था उससे काम चलाया| आखिरकार निश्चय कर भाई ने तैर कर शिविर से पानी लाने का निर्णय किया| तीन-चार घंटे बाद जब वो आया तो उसकी आँखें लाल (गुस्से में या उदासी में ये तो हम आज तक जानने का कोशिश कर रहे)| हमारा भाई ऐसा अंतर्मुखी है कि अन्तर्मुखियों को भी पछाड़ दे| कई बार पूछने पर उसने बताया की किस तरह वो एक बोतल पानी के लिए घंटो तक लाइन में लगा रहा और जब उसकी बारी आयी तो उसको एक बोतल पानी के साथ पांच अलग अलग लोगों के साथ फोटो खिंचवाने कहा गया| आगे क्या बोले उस दिन एक बैरल  (वही नीला वाला) पानी ५०० रुपये में आया था हमारे घर| वापस आते हैओप्पोरचुनिस्ट्स  पर|  जो लोग पैदल अपने अपने गांव जा रहे. उन्हें रोक कर कुछ लोग एक केला देने के बदले अपने सो कॉल्ड स्टार्टअप्स  का प्रमोशन  कर रहे हैं| लगता है ये ओप्पोरचुनिस्ट्स  रोज भगवान से ऐसे सिचुएशन का ही आशीष मांगते हैं|

आज हम स्पीकर पर घर से निकलते ही.....कुछ दूर चलते ही बजाये है| बचपन वाला क्रश जो था जुगल हंसराज पर| शायद आप अभी अपने घर में बैठे हों, निश्चिन्त होकर| आपको बधाई हो! कुछ का हाल अलग है वो चले थे एक 'घर' से अपने घर जाने के लिए| और उनका घर कुछ दूर चलते ही नहीं आता| 

गुडनाईट!

Wednesday 25 March 2020

'आ कोरोना मुझे मार'- थेथरपन, ढीठता और महामारी

कलकत्ता
२५.०३.२०२०




दुनिया की सफाई पर निकली एक लड़की 


'मूर्खता' स्वयं में एक विशेषता है| 'विशेषता' अर्थात किसी विषय में महारत हासिल करने की कला| 'कला' इसलिए क्यूंकि अंततः सबकुछ कला ही तो है| मेरे हिसाब से इक्कीसवीं सदी में मूर्खता दुर्लभ प्रजाति सामान है| इसिलीये तो 'मूर्ख विशेषज्ञों' की संख्या कम है| आखिर समय किसके पास है मूर्खता को अंजाम देने के लिए? माहौल अत्यंत गंभीर है| कोरोना नमक वैश्विक महामारी ने दुनिया को अपने-अपने कमरों और घरों तक सीमित कर दिया है| पहले रावण और चींटियों से बचने के लिए लक्ष्मण रेखा खींचा जाता था, और अब कोरोना से बचने के लिए|

अभी जिस 'मूर्ख विशेषज्ञ' की संज्ञा से हम आपको परिचय करवाए, उनकी बात करते हैं| कुछ 'मूर्ख विशेषज्ञ' अभी भी जबरन नुक्कड़ों-सड़कों पर खड़े दिखते हैं| 'सोशल डिस्टैन्सिंग' शब्द इनके लिए सोशल मीडिया  तक ही सीमित है| लात-डंडे पड़ जाये लेकिन मजाल है कि ये अपने घरों में इंटर  कर  जाएं| ऊपर से कोरोना कांस्पीरेसी  से लेकर कोरोना का घरेलु उपचार तक सबका ज्ञान है इन विशेषज्ञों के पास| बस घर पर रहने की बात पल्ले नही पड़ती| अतः जिस थेथर और ढीठ के बारे में अक्सर हमें बताया जाता है, वो यही लोग हैं| 

आजकल तो हमको डर लगने लगा है कि कहीं ये 'थेथरपन और ढीठता' को फिलोसॉफिकल आइडियोलॉजी  ना प्रूव  कर दें| एक समान फिलोसॉफी का जन्म यूरोप में भी हो चुका है| खासकर फ्रांस के पेरिस शहर में| सरल शब्दों में डिफाइन  करें तो, कोरोना महामारी के समय थेथरपन और ढीठता दिखाना 'कोरोना रिबेल' की संज्ञा को जन्म देता है| इस संज्ञा के अंतर्गत आने वाले व्यक्ति (या महाव्यक्ति, जो की ज्यादातर युवा और मिल्लेंनियल  ठहरे), बेझिझक और निडर होकर सड़कों पर घूम रहे हैं; और पार्टियाँ करते फिर रहे हैं| बेबीडॉल वाली दीदी भी मूर्ख-विशेषज्ञ-कलाकार, ओह! आई मीन  'कोरोना रिबेल' है  क्या? या फिर, वो भी 'आई एम नॉट अ रिबेल विथाउट अ कॉज' वाले कबीर भईया जैसी है? भूल गए क्या? वही मिसोगीनिस्ट  (मतलब नारी-द्वेषी) और डोमेस्टिक वायलेंस  से लैस फिल्म वाले| अब कोई मेरे से सहमत हो या न हो, मेरे लिए 'कोरोना रिबेल'' कबीर सिंह के ही केटेगरी वाले ही हैं| दोनों के दोनों थेथर और ढीठ| 

आगे बढ़ते हैं| हम अपने बारे में बताते हैं| हम जहाँ फसें हैं (आइसोलेटेड और लॉक्ड डाउन  पढ़िए) वहां भी युद्ध छिड़ा हुआ है| और इस युद्ध की रिबेल है मेरी बड़ी बहन| एक होता है मुसीबत में फंसना, और दूसरी तरफ होता है उससे भी भयंकर, जिस घर में मियां-बीवी का झगड़ा चल रहा हो उस घर में मुसीबत के वक़्त फंसना| खैर, यहाँ का रिबेलगिरी ज्यादा दिन नहीं चलने वाला; जीजा जी जो कबीर सिंह जैसे नहीं ठहरे| आशा है 'कोरोना रेबिलों' का भी दिमाग जल्द ही खुल जाये| नही तो 'आ कोरोना मुझे मार' सच होते देर नही लगने वाला| वैसे बता दें आपको, रिबेल हम भी कम नहीं, उतर जाएं क्या नीचे? अरे अरे.... हम तो मजाक कर रहे थे! 

रात का २:४७ हो रहा है| आँखों में नींद है और मन में आशा है कि सब ठीक हो जायेगा| रेडियो पर अजीब दास्ताँ है ये बज रहा| दिल अपना और प्रीत पराई वाला| कितना आयरॉनिक है न? 

अपना ख्याल रखियेगा!

Wednesday 18 March 2020

कोरोना वायरस - सतर्कता, सफाई और स्वार्थ

कलकत्ता,
१९. ३. २०२०

अगर आम मुद्दा होता तो हम अपना मुँह बंद ही रखते, लेकिन यहाँ तो पानी सर से ऊपर निकल चूका| एक बातूनी के लिए ऐसे भी मुँह बंद रखना कठिन होता है, लेकिन यहाँ तो बात मानवता पर आ पड़ी संकट का है|इसलिए बात करना जरूरी है| अगर हम घर पर होते तो परिवार के साथ थोड़ा डिस्कशन करके आराम से सोते, परन्तु यहाँ बस हम और हमारा साथी लैपटॉप| सोच रहे है जो मन में चल रहा है बोल ही दे, नही तो ऐसे रात की नींद दिन प्रतिदिन हराम होकर रह जाएगी|

कलकत्ता में कोरोना का पहला केस मिल चूका है, ठीक उसी तरह जैसे पूरे देश में १५७ (अबतक, आशा है और न बढे)| लगभग चार दिन की धड़ पकड़ के बाद मरीज को अस्पताल तक पहुँचाया गया| युवक और एडुकेटेड|हम तो ऐसा मानते थे कि हम युवा बड़े समझदार है; रूढ़िवादी मानसिकताओं को जी तोड़ तमाचा देंगे| लेकिन मेरा ऐसा मानना पूरी तरह सही नही है| किसी 'बड़े आदमी' का पुत्र इधर उधर भागता फिर रहा था और इसी बीच न जाने कितने ही लोगों के संपर्क में आया होगा| ऐसे में क्या हर इंसान को खोज पाना संभव होगा? और, सब को क्वारंटाइन अथवा संगरोध करना मुमकिन है? १.२  बिलियन से अधिक आबादी वाले हमारे देश में ऐसे भी संक्रमण की सम्भावना ज्यादा है| ऐसा ही कई और केसेस में भी देखा गया है; जहाँ लोग स्वास्थ्य सेवकों से ज्यादा अपने मन की करने में लगे हैं|

खैर जो प्रोत्साहन योग्य बात है, वो है सरकार का रवैया कोरोना वायरस के प्रति| शायद ही कभी मानव संसार के इतिहास में ऐसा हुआ होगा जहाँ सारी सरकारें जी तोड़ मेहनत कर रही लोगों के बीच जागरूकता पैदा करने और संक्रमण को रोकने में| एक और बात गौर करने वाली ये है कि कोरोना वायरस का अचार-विचार बहुत अच्छा है, भेदभाव नही करता  धनी और गरीबों में| जैसे भेदभाव करतीं हैं गरीबी, गंदगी और भूख| नजर उठा के देखिये, आपको ये तीनो गरीबों के मोहल्ले में ही मिलेंगे| लेकिन कोरोना वायरस ऐसा नही है; इसका घुसपैठ तो अब कई देशो के माननीय के घरों में है, एयरपोर्ट्स एवं पब्लिक प्लेसेस (अर्थात अमीरों के उठने-बैठने, खाने-पीने के स्थलों) पर है| इसलिए सतर्कता ज़रूरी है| साबुन-पानी से हाथ धोना जरूरी है| भले ही आपको पानी के लिए कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता हो और साबुन की एक ही टिकिया घर के हर काम में उपयोग होती हो| हाथ धोना अति आवश्यक है; अगर अभी तक नही सुने तो क्या खाख स्मार्ट फ़ोन है आपके पास! 

शाम को भाई से बात हो रही थी, उसने बताया की पड़ोस वाले पूर्व विधायक जी सपरिवार गांव निकल लिए, ठीक इसी  तरह बाढ़ आने पर भी अपने नौकरों को कमर तक पानी में डूबते छोड़ गए थे| अ ॉ ल  इंडिया रेडियो पर भी सुना की अभी गांव में रहना ज़्यादा सुरक्षित है| भाई और हम दोनों यही बतिआये की किस तरह हमलोगों ने हमेशा से शहरी जीवन का 'आनंद' लिया है और गांव क्या होता है कभी जाना ही नही| साफ़-सफाई तो आम बात है, हमारा डिस्कशन तो एग्रीकल्चरल इकोनॉमिक्स (कृषि सम्बन्धित अर्थशास्त्र) तक जा पहुंचा| एक तरफ जहाँ लोग ट्राली भरकर टॉयलेट पेपर खरीद रहे हैं (ग्लोब की दूसरी तरफ), वहीं कुछ लोग सिर्फ इसलिए गांव जा रहे क्यूंकि उनके पुश्तैनी घर में अन्न का भण्डार है| आखिर असली प्रोडूसर गांव में ही तो है, बाकि सारे हमसब तो बस कंस्यूमर है| अगर कंस्यूमर पर आफत आयी तो डूबती है इकॉनमी और गिरता है शेयर्स| और, जब प्रोडूसर खुद 'अपने परिवार' (जॉइंट फॅमिली पढ़िए) को प्रथम वस्तु उपलब्ध कराएगा तो आएगा 'इन्फ्लेशन'| फिर लड़ेंगे वायरस, सरकारें और इन्फ्लेशन आपस में|

भाई ने ये भी बताया की उसका बेस्ट फ्रेंड गांव जा रहा है, सिर्फ इसलिए क्यूंकि वहां लोगों के बीच समय आसानी से कट जाता है| उनका गाँव में अच्छा खासा बड़ा जॉइंट परिवार है| सब सबका साथ देते है| ये ठहरा बुरा वक़्त, इसमें स्वार्थ से पहले साथ की ही ज़रुरत है| जॉइंट फॅमिली न सही, अपने परिवार, दोस्त और आस पड़ोस में माहौल खुशनुमा रखिये| ज़रुरत पड़ने पर एक दूसरे का साथ दीजिये| और, हाँ, ट्राली भर-भर सामान मत लीजिये|ये एक बुरा समय जरूर है, लेकिन ये भी बीत जायेगा| हाँथ अच्छे से साफ़ रखिये| बाहर जरूरत पड़ने पर ही निकलिये| व्यंग्य को व्यंग्य समझिये, प्रोडूसर हम कंस्यूमर्स के तरह स्वार्थी नही है| तब तक एक गाना सुझाते है - परदेसिओं से न अँखियाँ मिलाना| वही शशि कपूर और नन्दा वाला, जब जब फूल खिले फिल्म से| गाने को लिटेरली लीजियेगा|

Friday 14 February 2020

अनकही कहानियाँ



पहली कहानी - कमरा 


अगर कुछ कहानियों को न कहा जाये तो क्या वो अपने में एक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड लिए अन्नत की सैर पर यूँही मंडराती रह जाएँगी? या फिर, वो पहुंचेंगी एक किनारे तक और रेत पर सीपियों की तरह पसर जाएँगी? क्या उन सीपियों को अपने हाथों में लेकर कोई ये सोचेगा कि वो जीवंत थीं कभी? क्या होगा उन सीपियों जैसी कहानियों का, अगर उन्हें कोई हथेली न मिले सदियों तक वितरित होने के लिए? सीपियाँ सड़ जाएँगी और कहानियाँ मर जाएँगी।

मैं उस छोटे कमरे के बारे में एक कहानी लिखना चाहती हूँ; जिसे मैंने देखा था कलकत्ता के कॉलेज स्ट्रीट से घर  (लेक टाउन) वापस जाते वक़्त| एक पुराने अंडरपास रेलवे ब्रिज से महज कुछ मीटर दूर स्थित वो कमरा एक पुराने मकान के ऊपर बना था| मकान के ऊपर कमरा? हाँ. बनावट से साफ़ जाहिर हो रहा था कि वो अलग से बनायी गयी संरचना है| बस ६ फ़ीट चौड़ी और ५ फ़ीट ऊँची| किसी छोटे कद के व्यक्ति का कमरा मालूम पड़ता था| कमरा इतना छोटा और बेढंगा था मानों किसी ने जल्दबाज़ी में जैसे तैसे बनवा दिया हो| और जब तक उसे पुराने अंडर पास के ऊपर से रेल न गुज़र जाये, मैं एकटक देखती हूँ उस कमरे को|

कमरा बस ईंटों का बना था| उसपर न तो सीमेंट किया गया था और न ही कोई रंग पोता गया था| एक चटख गुलाबी रंग के घर क ऊपर बना बेरंग कमरा आखिर किसकी नज़र नहीं खीचेगा? कमरे में एक टेढ़ी मेढ़ी  लगभग आयात के आकार की खिड़की दक्खिन की और खुली थी| उससे भी अजीब थी खूँटी पर टंगी हुई साइकिल। हरे रंग की चौबीस इंचिया खिड़की के बाहर लटक रही थी, और उसे गुदरी और रस्सियों से ऐसा बाँधा गया था जैसे वो सबसे कीमती चीज़ हो उस घर में रहने वाले की|  मकान मेरी बायीं ओर वाली खिड़की से दिख रहा था, ठीक दो गज की दूरी पर| फिर मैंने गाड़ी की दूसरी ओर थोड़ा खुद को खसकाया, कड़ी धुप का एक थपेड़ा आया और मेरे चेहरे को स्तंभित करता दूसरी खिड़की से बाहर चला गया| दखिन की तरफ धुप इतनी तेज़ थी कि मुझे वापस अपने स्थान पर जाना पड़ा| इतनी कड़ी धुप में भी उस कमरे की खिड़की खुली थी| क्या उस कमरे में रहने वाले व्यक्ति को गर्मी नही लगती? थोड़ी दूर खड़ा बरगद क्या पहुंचा पाता होगा अपने छाँव को उस कमरे तक, मैंने विचार किया?

गाड़ियाँ जीवित हो उठीं लेकिन किसी सरीसृप की तरह रेंगते हुए एक दो- ढाई गज ही चल पायीं महज| वो कमरा अब ठीक मेरी गाड़ी की खिड़की के ऊपर था| बेजान नहीं था वो कमरा| बल्कि वो तो कमरा ही नही था| अपने में एक सम्पूर्ण घर था वो| मैंने पहली बार देखा मकान के ऊपर एक घर| बाहर से जितना बदरंग, अंदर उतना ही रंगीन|  ठीक मकान वाला गुलाबी रंग अंदर पोता हुआ था| एक छोटा टेलेविज़न एक संकरे लकड़ी के कुंदा पर रखा था| किसी स्त्री एवं शिशु के कपड़े पास-पास टंगे थे| लगभग पांच फ़ीट ऊँचे घर में टंगना कर्णरेखांकित था| टेलीविज़न सेट के बगल में एक कैलेंडर टंगा था| बाहर से मायूस मालूम पड़ता ये घर अंदर से अत्यंत जीवित था| सरीसृप में भी जान वापस आ गयी| गाड़ियाँ आगे बढ़ने लगीं, मैंने सर तिरछा करते हुए देखा, इस बार मुझे एक गुलाबी मकान दिखा, जिसके बाहर का हरे रंग का दरवाजा दक्खिन की तरफ खुला था| घर सफ़ेद चूने से पुता था और दीवारें खाली थीं| दो प्लास्टिक की खाली कुर्सियां इंतज़ार कर रही थी मकान को घर बनाने वाले का|





Wednesday 15 May 2013

गुलमोहर फिर खिल उठे !



              

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ऐसा लग रहा है जैसे एक सदी बीत चुकी है और हम उन रास्तो से फिर से होकर आए हैं| सबकुछ बहुत नया लग रहा था और सुन्दर भी| ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो किसी ने जादू की छड़ी घुमाकर सबकुछ एक दिन में बदल दिया हो| आज रास्ते में एक चीज़ जो सबसे खास लगी वो था गुलमोहर का पेड़ और उसपर लगे शोख लाल फूल, और वो भी सिर्फ एक नही लगभग सौ से भी ज्यादा गुलमोहर के पेड़ दिखे आज| अब वो तो पेड़ थे भरे पूरे पेड़| एकाएक तो नही आ सकते कहीं से, फिर भी ना जाने वो सारे पेड़ कहाँ छिपकर बैठे थे कल तक या फिर शायद बाहरी दुनिया के लिए हम ही अपनी नज़रे बंद करके बैठ गए थे| हाँ, यकीनन हम ही कहीं खो से गए थे, अपनी छोटी सी दुनिया में जिसमे सिर्फ कुछ ही लोग थे, चंद दोस्त, खास रिश्तेदार और कुछ फेसबुक फ्रेंड्स (सभी स्कूल, कॉलेज और पड़ोस के दोस्त, कोई भी अपरिचित नही)| बस इतने ही लोग|

अक्सर हम खुद को अचानक एक ऐसे जगह पाते हैं जहाँ स बाहर जाने का कोई रास्ता ही नही मिलता| छोटी सी दुनिया संकोची और घुटन भरी लगने लगती है| लोगों की दोस्ती झूटी और बेमानी, कुछ रिश्ते बोझ, कुछ गलतियाँ पछतावा कुछ जिम्मेदारियाँ थोपी हुई और हम खुद एक बेचारे पीड़ित की जिंदगी जीने लगते हैं| यही सबकुछ हमारे साथ हुआ| बाहर का रास्ता ढूँढना ज़रुरी बन गया ओर वो रिश्ते निभाना मजबूरी| लोगों को गलतियों और जानबूझकर की गयी बदमाशियों को हमलोग माफ करते जाते हैं और वो हमे हल्के में लेना शुरू कर देते हैं| वैसे यह कहना भी बुरा होगा की सभी तुच्छ किस्म के है, ऐसा नहीं है अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोग है हमारे दुनिया में लेकिन वो अलग बात है की अब बुरे लोगों की संख्या कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी है|

चलिए फिर से बात करते है गुलमोहर की.... बचपन में हमारे घर के आगे भी एक गुलमोहर का पेड़ हुआ करता था| एक तरफ पीले फूलों वाला पेड़ जिसका नाम हम आज तक नहीं जान पाए और दूजी तरफ गुलमोहर| पता नहीं लोगों ने उस पेड़ को क्यूँ काट दिया| स्कूल के रास्ते में भी सैकड़ों गुलमोहर के पेड़ आते थे। उन्हें भी हाइवे बनाने के लिए काट दिया गया|बचपन में जो कुछ भी बड़े बुजुर्गों से सिखा वो बता रहे हैं| “निंदक नियरे रिखिये आँगन कुटीर छवाए बिन साबुन पानी के सब सून होई जाये” अब ठीक से तो याद नहीं पर शायद कुछ ऐसा ही था कबीर का दोहा| निंदक को अपने पास रखना चाहिए क्यूंकि वो हमे हमारी गलतियाँ और खामियां गिनाकर ‘परफेक्शन’ के ओर ले जाता है| खैर बात तो सही है लेकिन जब कोई निंदक आपके ऊपर हावी होने लगे तो वो कतई सही नही है| ना कहना और कुछ ‘दोस्तों’ से दूरी बना लेना भी इंसान को सीखना चाहिए|

हमे अपने छोटी से दुनिया से बाहर निकलना चाहिए, ठीक उसी तरह जैसे एक ककून तितली बनने से पहले अंदर अपनी छोटी से दुनिया में ही सिमटा रहता है।  और जब उसके पंख आ जाते है तो बगियों में घूमता है| बाहर की दुनिया बेहद खूबसूरत और करिश्माई है| इसने हमारे लिए हजारों तोहफे बिछाकर रखे है शायद उनमे से ही एक हैं ‘गुलमोहर’| वैसे जबसे हमने भी उनलोगों से दूरी बनाई या फिर ये कह लीजिए पीछा छुड़ाया है, मेरे गाल भी सदैव हँसी से खिले रहते है| अबकी बार गर्मी में सिर्फ पेड़ वाले गुलमोहर ही नहीं हमारे चेहरे के भी गुलमोहर खिल उठे| आप सब भी ढूँढिये कुछ ऐसा जिसने आपको परेशान कर रखा हो और कह दीजिए उसे अलविदा, क्या पता शायद आपके भी ‘गुलमोहर खिल उठें’|

Saturday 30 March 2013

जीवनदाता @ श्मशान घाट


Ganga ghat, Patna


मम्मी ने फोन  पर  घर से निकलने से पहले ही कहा था कि उस रास्ते से मत आना । सन्नाटा रहता है, सुनसान है ,
ये वो और न जाने क्या-क्या |लेकिन हम ठहरे शांति पसंद और शॉर्टकट वाले,उसी रास्ते की ओर हो लिए | एक और कारण है जिसके वजह से मम्मी वहाँ से आने – जाने के लिए मना करती है , उसी रास्ते में श्मशान घाट भी आता है | लोगों का पार्थिव शरीर, रोते बिलखते परिजन , फूलों की महक , उठता धुआं और गहन शांति | शायद मम्मी इस बात से भली भाँती परिचित है कि ये सब बातें हमे परेशान करती हैं, फिर भी बड़े होने के इस दौर में हमे जिज्ञासा और उत्सुकता दोनों हमशा नई चीज़ें और नई जगहों की ओर ले जाती हैं |

पटना की वो सबसे शांत सड़क, गंगा की इठलाती लहरें , और  लगभग १० किलोमीटर का वो लंबा सफर और इन सब के बीच श्मशानघाट | लेकिन इस बार हमने कुछ ऐसा देखा जिसने हमे सोचने पर मजबूर कर दिया , घाट के ठीक बाहर की दिवार पर एक ऐसा विज्ञापन था जो हम सब को जाने-अनजाने में ही सही बहुत कुछ सिखा रहा था | या फिर ऐसा भी हो सकता है कि किसी ने उस  विज्ञापन को जानबूझकर वहाँ लिखा हो | ‘जीवनदाता’ यही वो शब्द है जो उस दीवार पर लिखा था | आप भी चौंक गए ना ? बड़े लाल रंग क अक्षरों में खूब चमक रहा था यह शब्द |

इंसान जीवन से लेकर मृत्यु तक का सफर तय करता है | ‘जीवनदाता’ के दिए हुए अनमोल तोहफे का पूर्ण रूप से उपयोग करता है | रिश्ते निभाता है, दोस्त बनाता है, हँसता है, बोलता है  , दुःख – सुख झेलता है , सपने बुनता है और ना जाने क्या –क्या करता है | हाँ, और जाने - अनजाने बहुत से लोगों को दुःख और गीले-शिकवे की वजहें भी दे जाता है | सोचने वाली बात तो यह भी है कि दुनिया में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसने गलतियाँ नहीं की या फिर नहीं करेगा , फिर ऐसा क्यों है कि हम ‘जीवनदाता’ अर्थात कुदरत की दी हुई जिंदगी (जो शायद सिर्फ एक ही हो) में भी पछतावे और दुश्मनी को एक बड़ा हिस्सा दे देते है |  कई बार तो ऐसा भी  होता है कि हम लोग खुद को एक ही चक्र में गोल-गोल घूमते रह जाते हैं और जिंदगी के कई सुन्दर लम्हों को नज़रंदाज़ कर देते हैं |

“पैसा तो सिर्फ हाथ का मैल है असली कीमत तो इंसान की होती है |”

“उनके ज़ुबान से ऐसे शब्द शायद ही कभी किसी ने सुना हो लेकिन जब उन्होंने भरी महफ़िल में ऐसा कहा तो सब लोग सोचने लगे | जब वो इंसान था तो उसे कोसते रहे और श्रापते रहे ...और आज ऐसा कह रहे हैं | सिर्फ उनकी अच्छाईया गिना रहे हैं | बोल रहे है उसे हमें अकेला छोडकर नहीं जाना चाहिए था , लेकिन अब वो नहीं | कितना मानता था वो तुम्हे , तुम्हारे लिए दुआ करता था , रोता था कि कभी तुम आओगे उसे याद करते , गले लगाने | लेकिन तुम आज पछतावे तले दबे हो, क्या कर लोगे इसका ? कह रहे हो काश! एक बार भी कहा होता...उसने कहा था हज़ार बार लेकिन तब तुम अहंकार में डूबे थे | अब रोते हो की किसी ने हाथ नहीं बढ़ाया |” यह बातें भी हमे ऑटो में बैठे हुए याद आ गईं| कुछ दिन पहले की ही घटना थी| आज मन ही मन सब कुछ कह रहे हैं लेकिन उस दिन हम उठकर चले गए थे |

हमारी  मंजिल भी अब सिर्फ दो मिनट दूर थी | लेकिन रास्ते में जो कुछ भी देखा उसे सबके साथ बाँटा | आप भी ध्यान रखियेगा क्यूंकि न जाने ये ‘जीवनदाता’ आपको कब क्या सिखा और दिखा जायें |


~ आशना सिन्हा



Saturday 20 October 2012

एक छोटा सा किस्सा ....जो बहुत ख़ास बन गया |

  वाओ  यार  खादी  इज़  सो  गुड !



बात कुछ दिनों पहले की है ....बाज़ार में खादी की एक दुकान पर यूँ ही नज़र चली गयी तो सोचा एक बार अन्दर जाकर  कलेक्शन भी देख ही लूं । स्कूल के दिन भी अब बीत चुके है सो यूनिफार्म से तो  छुटकारा मिल ही गया है । लेकिन वहीं दूसरी तरफ कॉलेज प्रशाशन ने भी यह नियम लागू कर दिया है की छात्र "ढंग" के कपड़े पहन कर ही कॉलेज आयें । जैसे ही दुकान के अन्दर गयी तो नज़र वहां टंगे खादी  के कुर्तों पर चली गयी और देखते ही देखते मैंने 4-5 कुरते खरीद लिए । कुर्तों और खासकर खादी का भूत कुछ यूं सर पर चढ़ा की उस महीने की सारी जमा-पूंजी को उसी पर उड़ा दिया  ।

अब शुरू हुआ असली किस्सा , कॉलेज शुरू हो गया और साथ ही कोचिंग भी । हाँ भाई , 12th  तक कोचिंग न करने के बहुत से साइड इफेक्ट्स देखे है इसलिए कॉलेज जाते ही साथ में ही कोचिंग भी ज्वाइन कर लिया ।
पहले दिन तो सब की नज़रे बिना कुछ कहे ही सर्राटे से दौड़ते हुए चली गयी ।

एक हफ्ते बाद कॉलेज कैंपस और कोचिंग कैंपस में बहुत सी लड़कियाँ  कुरते में दिखने लगीं । जी हाँ , ये वही लड़कियाँ  है जिन्होंने कॉलेज में "ड्रेस कोड" लागू करने  की बात पर जमकर हंगामा किया था । थोड़े दिन और बीते फिर कई लड़कियों ने हिम्मत करके पूछ ही लिया "आशना  तेरी कुर्तियाँ बहुत अच्छी लगती है कहाँ से खरीदा है ?" मैंने उन्हें बड़े खुले दिल से बता दिया की मैंने "खादी भंडार" का सहारा लिया है। पहले तो सबको लगा मजाक कर रही हूँ लेकिन जैसे ही उन्होंने फैब्रिक के बारे में जाना सबके ज़ुबान से एकाएक निकल पड़ा 
 "वाओ यार खादी इज़ सो  गुड !"

इसी तरह एक दिन पड़ोस की आंटी जी ने भी मुझे आवाज़ लगायी और बाकियों की तरह ही मेरे कुर्तों के बारे में ही तारीफ की और दूकान का नाम जानना की इच्छा जताई ,और तो और आंटी जी ने तो यह तक कह दिया कि काश! उनकी भी  बेटी ऐसे ही कपड़े पहनती ।
कुछ दिन बाद के तो हालात गज़ब ही हो गए, लड़कियों के साथ साथ लड़के भी कुरते में कॉलेज और कोचिंग आने लगे । जब भी किसी के "खादी वाले कुरते" पर नज़र जाती, सामने वाला शख्स  एक प्यारी से मुस्कान मेरे नाम कर देता । 

जब मैंने ये सारी बातें घर में बताई तो भाई-बहन ने  हमेशा  की तरह मज़ाकिया अंदाज़ में कहा- "सारे खादी भंडारों की चांदी हो गयी तुम्हारे कारण " । मम्मी ने बड़ी ही परिपक्वता से कहा - " चलो इसी बहाने युवाओं  को खादी के बारे में पता तो चला । वरना वो तो इसे आउटडेटिड चीज़ ही समझते है । अच्छा है कम से कम तुमने लोगों को प्रेरित तो किया | "

सचमुच मुझे सबकी बातों ने सोचने पर मजबूर कर दिया , कितना अच्छा  हो अगर सरकार और साथ ही फैशन से जुड़े लोग अगर "खादी " का प्रचार- प्रशार शुरू कर दे ।खादी का निर्माण कितना उत्कृष्ट सिद्ध होगा हमारे देश की आर्थिक स्तिथि के लिए । साथ ही आप सभी को जाते हुए यह भी बता देती हूँ कि बापू का भी यही मानना था कि देश की प्रगति के लिए खादी और उससे जुड़े अन्य चीज़ों का उत्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है ।