Wednesday, 18 March 2020

कोरोना वायरस - सतर्कता, सफाई और स्वार्थ

कलकत्ता,
१९. ३. २०२०

अगर आम मुद्दा होता तो हम अपना मुँह बंद ही रखते, लेकिन यहाँ तो पानी सर से ऊपर निकल चूका| एक बातूनी के लिए ऐसे भी मुँह बंद रखना कठिन होता है, लेकिन यहाँ तो बात मानवता पर आ पड़ी संकट का है|इसलिए बात करना जरूरी है| अगर हम घर पर होते तो परिवार के साथ थोड़ा डिस्कशन करके आराम से सोते, परन्तु यहाँ बस हम और हमारा साथी लैपटॉप| सोच रहे है जो मन में चल रहा है बोल ही दे, नही तो ऐसे रात की नींद दिन प्रतिदिन हराम होकर रह जाएगी|

कलकत्ता में कोरोना का पहला केस मिल चूका है, ठीक उसी तरह जैसे पूरे देश में १५७ (अबतक, आशा है और न बढे)| लगभग चार दिन की धड़ पकड़ के बाद मरीज को अस्पताल तक पहुँचाया गया| युवक और एडुकेटेड|हम तो ऐसा मानते थे कि हम युवा बड़े समझदार है; रूढ़िवादी मानसिकताओं को जी तोड़ तमाचा देंगे| लेकिन मेरा ऐसा मानना पूरी तरह सही नही है| किसी 'बड़े आदमी' का पुत्र इधर उधर भागता फिर रहा था और इसी बीच न जाने कितने ही लोगों के संपर्क में आया होगा| ऐसे में क्या हर इंसान को खोज पाना संभव होगा? और, सब को क्वारंटाइन अथवा संगरोध करना मुमकिन है? १.२  बिलियन से अधिक आबादी वाले हमारे देश में ऐसे भी संक्रमण की सम्भावना ज्यादा है| ऐसा ही कई और केसेस में भी देखा गया है; जहाँ लोग स्वास्थ्य सेवकों से ज्यादा अपने मन की करने में लगे हैं|

खैर जो प्रोत्साहन योग्य बात है, वो है सरकार का रवैया कोरोना वायरस के प्रति| शायद ही कभी मानव संसार के इतिहास में ऐसा हुआ होगा जहाँ सारी सरकारें जी तोड़ मेहनत कर रही लोगों के बीच जागरूकता पैदा करने और संक्रमण को रोकने में| एक और बात गौर करने वाली ये है कि कोरोना वायरस का अचार-विचार बहुत अच्छा है, भेदभाव नही करता  धनी और गरीबों में| जैसे भेदभाव करतीं हैं गरीबी, गंदगी और भूख| नजर उठा के देखिये, आपको ये तीनो गरीबों के मोहल्ले में ही मिलेंगे| लेकिन कोरोना वायरस ऐसा नही है; इसका घुसपैठ तो अब कई देशो के माननीय के घरों में है, एयरपोर्ट्स एवं पब्लिक प्लेसेस (अर्थात अमीरों के उठने-बैठने, खाने-पीने के स्थलों) पर है| इसलिए सतर्कता ज़रूरी है| साबुन-पानी से हाथ धोना जरूरी है| भले ही आपको पानी के लिए कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता हो और साबुन की एक ही टिकिया घर के हर काम में उपयोग होती हो| हाथ धोना अति आवश्यक है; अगर अभी तक नही सुने तो क्या खाख स्मार्ट फ़ोन है आपके पास! 

शाम को भाई से बात हो रही थी, उसने बताया की पड़ोस वाले पूर्व विधायक जी सपरिवार गांव निकल लिए, ठीक इसी  तरह बाढ़ आने पर भी अपने नौकरों को कमर तक पानी में डूबते छोड़ गए थे| अ ॉ ल  इंडिया रेडियो पर भी सुना की अभी गांव में रहना ज़्यादा सुरक्षित है| भाई और हम दोनों यही बतिआये की किस तरह हमलोगों ने हमेशा से शहरी जीवन का 'आनंद' लिया है और गांव क्या होता है कभी जाना ही नही| साफ़-सफाई तो आम बात है, हमारा डिस्कशन तो एग्रीकल्चरल इकोनॉमिक्स (कृषि सम्बन्धित अर्थशास्त्र) तक जा पहुंचा| एक तरफ जहाँ लोग ट्राली भरकर टॉयलेट पेपर खरीद रहे हैं (ग्लोब की दूसरी तरफ), वहीं कुछ लोग सिर्फ इसलिए गांव जा रहे क्यूंकि उनके पुश्तैनी घर में अन्न का भण्डार है| आखिर असली प्रोडूसर गांव में ही तो है, बाकि सारे हमसब तो बस कंस्यूमर है| अगर कंस्यूमर पर आफत आयी तो डूबती है इकॉनमी और गिरता है शेयर्स| और, जब प्रोडूसर खुद 'अपने परिवार' (जॉइंट फॅमिली पढ़िए) को प्रथम वस्तु उपलब्ध कराएगा तो आएगा 'इन्फ्लेशन'| फिर लड़ेंगे वायरस, सरकारें और इन्फ्लेशन आपस में|

भाई ने ये भी बताया की उसका बेस्ट फ्रेंड गांव जा रहा है, सिर्फ इसलिए क्यूंकि वहां लोगों के बीच समय आसानी से कट जाता है| उनका गाँव में अच्छा खासा बड़ा जॉइंट परिवार है| सब सबका साथ देते है| ये ठहरा बुरा वक़्त, इसमें स्वार्थ से पहले साथ की ही ज़रुरत है| जॉइंट फॅमिली न सही, अपने परिवार, दोस्त और आस पड़ोस में माहौल खुशनुमा रखिये| ज़रुरत पड़ने पर एक दूसरे का साथ दीजिये| और, हाँ, ट्राली भर-भर सामान मत लीजिये|ये एक बुरा समय जरूर है, लेकिन ये भी बीत जायेगा| हाँथ अच्छे से साफ़ रखिये| बाहर जरूरत पड़ने पर ही निकलिये| व्यंग्य को व्यंग्य समझिये, प्रोडूसर हम कंस्यूमर्स के तरह स्वार्थी नही है| तब तक एक गाना सुझाते है - परदेसिओं से न अँखियाँ मिलाना| वही शशि कपूर और नन्दा वाला, जब जब फूल खिले फिल्म से| गाने को लिटेरली लीजियेगा|

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