Sunday 25 September 2011

नए ख्वाबों की बारिश



                      


 भीगी - भीगी सी है ये फिजा ,
या फिर मेरे ख्वाब कुछ नए हैं ,
आसमान से है बूँद बरसते ,
या किसी के दिल से  ख्याल उमड़ रहे हैं |
संगीत है ये कोई नया या फिर ,
अलफ़ाज़ बदल रहे हैं ,
नयी है ये मुस्कुराहट ,
या फिर जीने के अंदाज़ बदल रहे हैं |
ख़ामोशी है ये कौन सी ,
के ज़िन्दगी फुसफुसा के कह रही है ,
मर-मर कर जीना या फिर ,
जी कर मरना सही है |
बरसात तो है ये लेकिन ,
आज ख्वाब बरस रहे हैं ,
लिखी हुई थी जो दास्ताँ ,
उसके किरदार बदल रहे हैं |
इस से पहले की मन बदल जाये  ,
भीगने  दो खुद को,  
कायनात  की करामात  बदल जाये ,
सजने  दो ज़मीन को |
शक्ल तो वही हो लेकिन ,
हो इंसान नया ,
जब ख्वाबों की बारिश से भीगे मेरा ये जहाँ |




Wednesday 10 August 2011

अवांछित वृत्तांत

अवांछित वृत्तांत





सुलगती है मेरी वेदना ,
आ जाती है जो याद कभी ,
उस  धोखेबाज़ की |
गालियों और उपहति का बदला ,
मेरे ध्येय ने निस्तब्धता और संयम से  लिया |
घोर अनर्थ होता ,
मेरा उस दुर्जन शैतान दुष्ट से लड़ना |
जिसे कभी मित्र समझने की भूल कर डाली थी ,
अफ़सोस तले उस "खुद" को ,
कोसती अंतकरण मेरी |
ऐतबार जो कर लिया था ,
उसकी हर-एक कही बात का ,
बनावटी लगता है अब हर ज़र्रा उसका |
अहानिकर मै कर बैठती हूँ भरोसा ,
न जाने कैसे अजनबियों पर ,
दयालुता का पर्दा ओढ़े शैतान घुमते है यहाँ |
मैत्री का निरर्थक रूप ,
शायद सबों के दिल में जगह 
बनाकर बैठ गया है |
मेरा सिर्फ एक सवाल ......
दोस्ती अब इस जग के लिए क्या है ?
ढोंग, बेईमानी , नफरत या एक सम्बन्ध रिश्तेदारी |
जान कर उसकी सच्चाई ,
ठेस बहुत पहुंचा था मन को ,
लेकिन सच्चे साथियों ने थाम लिया इस जीवन को |
जो न होता कभी यह,
विक्रय मन को ,
न कभी जान पाती मै उस धोखेबाज़ के सच को |
बोझ बनाकर उसकी वृत्तान्त को ,
नही दुःख में रहना मुझे ,
जियूं हर पल हंसी - ख़ुशी चाहे ये दिया जब भी बुझे|
अशिष्ट अभिनय की ही उम्मीद ,
है मुझे उससे ,
परन्तु समंजनीय है मेरा आचरण इस दुविधा के लिए |
नित्य रहेगा वो धोखेबाज़ और उसकी हरकतें ,
नही उदित होंगी मेरे मन में कभी भी नफरतें ,
ज्ञात है उसकी  भड्कैल क्षमा की कोशिशें |
उतार कर फ़ेंक दिया है ,
किसी हेमंत की रात में ओढ़ी  हुई शॉल ,
जिसका कोई आडम्बर नही होता ग्रीष्म में की ही तरह ,
उस धोखेबाज़ की ,
'अवांछित वृत्तान्त ' को |

- आशना सिन्हा 
 

 








Saturday 23 July 2011

मेरा पहला लेख.... खुद की तलाश .....

                          खुद की तलाश ..... 





हम इंसान  भी न बहुत ही बेफिक्र हैं | हर वक़्त हम किसी न किसी चीज़ या किसी दुसरे इंसान की तलाश ही करते रहते हैं| कभी हमें ख़ुशी चाहिए....कभी शांति...कभी मन को सुकून ....कभी एक दोस्त ...कभी कोई सच्चा प्यार करने वाला.....कभी कोई हरकदम पर साथ देने वाला | और अनजाने में ही सही लेकिन हम हमेशा इस अर्थहीन तलाश में खोये रहना पसंद करते हैं | यह "तलाश" न ही हमारा शौक है और न ही फितरत लेकिन फिर भी यह हमें रोमांचक और साथ ही जरूरी भी लगती है |
इन सभी गैर जरूरी तलाशों के बीच हम एक  सबसे अहम् तलश करना भूल जाते हैं | जी हाँ , हम हमेशा लोगो क बीच खुद को भूल जाते है | आजीवन हम दुसरो के बारे में ज्यादा सोचते है और खुद बारे में कम | लेकिन ऐसा क्यूँ? क्या हमारे जीवन में दुसरो का ज्यादा  महत्त्व है ? क्या हमने यह जन्म दुसरो को खुश रखने के लिए लिया है ? 
ऐसे ही सैकड़ो सवाल हर पल मेरे अभिप्राय में चक्कर काटते रहते हैं |खुद को बेहतर बनाने के  बदले हम इंसान हमेशा अपनी  परिस्थितियों को बेहतर करने को कोशिश करते हैं | परन्तु , कितना अच्छा होता अगर हम यह समझ जाते कि "जब हम अच्छे होंगे तभी हमारी  परिस्थितियां भी "| इसीलिए हर व्यक्ति को अपने जीवनकाल में  खुद की तलाश करनी चाहिए न की उन चीज़ों की जो सिर्फ दूर से ही लुभावनी लगती हैं |
लोग कहते हैं हमारा मन इस ब्रह्माण्ड से कई जादा बड़ा और खूबसूरत है |
और मैं इस बात पर पूरा विश्वास रखती हूँ | अनगिनत भावनाएं , रहस्य , सच्चाई और यादें सब हमारे अन्दर तो पहले सी ही मौजूद है तो फिर  बाहर  की इस खोकली दुनिया में क्या ढूँढना | और अगर कुछ खोजना ही है तो फिर अपनों के दिल में बसने वाले उन दुआओं और प्यार को खोजो जो सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए बने |
जीवन के इस अनमोल "तलाश" को यूँ व्यर्थ में मत जाने दो | आखिर में जब हमें अगर कुछ याद रहेगा तो वो होगी हमारे इस आजीवन की गयी तलाश और तलाश में खोजा गया खज़ाना अर्थात हमारा पवित्र हृदय | आप सब भी अपनी तलाश जारी रखिये और प्रयास कीजिये उन सभी खुशियों ,शांति के दो पल और एक सच्चे मित्र को खुद के भीतर खोजने की|

फिर मिलेंगे अगली बार एक बेहतर आप और एक बेहतर मैं इसी जगह ...तब तक के लिए शुक्रिया |


Sunday 10 July 2011

बदनाम गलियाँ



बदनाम गलियाँ




अजनबी तनहाइयाँ आज फिर ले आई उसे ,
बदनाम गलियों के दरवाज़े पर | 
नशे में धुत आज फिर उसकी आत्मा ,
कदम उसके फिर गये बदनाम गलियों पर ठहर |

शहर के हो-हल्ले से दूर हैं इसके रास्ते,
आते रहते हैं प्यार के प्रेमी यहाँ ,
अपने "पराये शागिर्द" की तलाश में |

लज्जा - रहित नज़रे उसकी आज हैं ,
फिर किसी के सीने से लग जाने की आस में |
इन बदनाम गलियों में बिकता असली प्यार है ,
आती हैं हस्तियाँ भी कभी -कभी यहाँ शांति की आस में |

मोगरे के फूलों सी महकती यह गलियाँ ,
चिड़ियाँ जैसी चहकती यह गलियाँ ,
दरिंदगी के बीच ज़िन्दगी से मिलवाती यह बदनाम गलियाँ |

कुछ पल सुकून देती उसे यह चादर की सिलवटें ,
दर्द की छाँव से भी मुक्त कर देती |
याद कर पुरानी बातें बदलता रहता वो करवटें ,
बदनाम गलियाँ वो सरे ग़म हंस कर अपनी झोली में ले लेती हैं | 

दिखावों से मुह मोड़ती यह गलियाँ ,
कभी न खिलने वाली फूलों की कलियाँ ,
सबको अपनी पहचान दिलाने वाली यह बदनाम गलियाँ |

गलत अंदाज़ नज़रों से परखा जाता इसे ,
जज्बातों से लेकिन कोई खेलता नही यहाँ |
बेदाग़ दामन लेकर घुमने वाले ,
अंतर्मन साफ़ करने खटखटाते हैं यहाँ |

पैसों से ही सही पर सच्ची खुशियाँ देती यह गलियाँ ,
गम से कभी न रूबरू कराती यह गलियाँ ,
टूटे दिल को सुन्दर मूरत बनाती यह बदनाम गलियाँ |

उसके भी गमगीन मन को कर दिया फिर खुशनुमा ,
शुक्रिया जैसा कोई अलफ़ाज़ नही उनके लिए यहाँ |
अपने कुरूप जग का एक सुन्दर हिस्सा है यह दुनिया ,
कितना शीतल कितना स्थिर है यहाँ का समा |
 
माना एक गंदे सच का परिचय हैं यह गलियाँ ,
दुनिया और हम इंसानों से कई गुणा पवित्र हैं यह गलियाँ ,
जिसको जग ने ठुकराया उसे इसने गले से लगाया ,
सच्ची मित्र भी हैं यह गलियाँ |

सुबह के उजाले के साथ रात की तरह वो  भी वापस लौट गया ,
पैसो  की दुनिया में उसने पैसो से ही  सच्चा प्यार पाया |
फर्क हम में और उनमे कैसे हो सकता है इतना ,
इंसानों के शरीर में समाया है खुदा का काया  |

ज़ख्मों को पट्टी करती यह गलियाँ ,
हर दुःख हर शरीर को आँचल से ढक देती यह गलियाँ , 
घिनौनी मगर इंसान को खिलौना नही समझती यह बदनाम गलियाँ |

 



 
 




 

Wednesday 15 June 2011

मै मसखरा


मै मसखरा 






चले गए सब हँस कर मुझ पर ,
पर मै अन्दर ही अन्दर रोता रहा |
जाग गई  ये दुनिया लेकिन,
मै अबतक यूँ ही सोता रहा |

हँसना तो सीख लिया खुद पर ,
पर सीखी नही दुनियादारी |
जो जान लिया होता दुनिया से मैंने लड़ना  ,
न होता मै आज इस चौराहे पर खड़ा |

हाँ , मै पगला , मै बेवकूफ मसखरा |
 
कोई न अपना मुझे इस जग से मिला ,
खून के  रिश्तों से जो मैंने किया गिला |
धोखा दे कर दिल को सब ने सैकड़ो बार तोड़ा,
हर बार वो शीशा मेरे अपनों ने ही जोड़ा |

ढक लिया यह चेहरा अपना ,
रंगों की आड़ लेकर |
न जाना मैंने कितनी खुशियाँ  ब्याज में मिलती हैं ,
थोड़ा  उधार देकर |

हाँ , मै नासमझ , मै नादान मसखरा |

बीत चूका था जीवन आधा,
जब जाना लोगों का सच |
जी लूं खुद अपने लिए भी ,
जो चंद लम्हे बच गये है अब |

कितने करतब सीखे मैंने ,
और सीखी कई कलाकारी |
पर परखना भूल गया मै ,
खुद से मेरी इमानदारी |

हाँ , मै अड़ियल , मै जिद्दी मसखरा |

सच - झूठ न जाना कभी ,
 न जाना वादों का खेल |
हरदम सब ने यही चढ़ाया ,
न जग में मेरा कोई मेल |

जीना जो सीखा गम में ,
सीख लिया जीना कम में |
लेकिन हिम्मत अभी भी बाकी  है जेहन में ,
क्योंकि साथ है उसका मेरा हर नमन में |

हाँ , मै मानुषिक , मै निष्कलंक मसखरा |

देखूं जो मै दुनिया इन  नजरो से ,
जीवन की खुशबू है अपनों के  गजरे से |
तरसूं न अब मै खुशियों के  लिए,
सबक जो  मैंने  अपनी हर गलती से लिए |

बोध हुआ जब अपने अचेत मन से ,
मेरी उंचाई अब होगी परे गगन से |
सब का मै और मेरे सब ,
 नही गम मै झेलूँगा अब |

हाँ , मै सुपरिचित ज्ञानी , मै अत्युत्तम मसखरा |

Wednesday 25 May 2011

काश !


काश !







काश ! कोई समझ पाता कि ...
कितना मुश्किल था उसके लिए ,
झूठी हंसी का पर्दा अपने चेहरे पर रखना |
कोई तो समझ पाता कि उसके अन्दर का ग़म ,
था कितना गहरा |

काश ! कोई समझ पाता कि....
अकेलेपन की  तस्वीर कैसी होती है,
कोई तो सुनता उसके ,
अनकहे शब्दों कि कहानी |

काश ! कोई सोच पाता कि ...
वो भी किसी राह पर अपने क़दमों क निशां ,
छोड़ रही है |
लकिन कोई यह सोचता भी कैसे कि,
काटों पे क़दमों के निशान कैसे दीखते होंगे |
कोई तो ये सोच लेता कि निशां उसके,
लहू के सबूत के साथ होंगे |

काश ! कोई तो जानने कि कोशिश करता,
मन की  बात उसकी |
वो हजारो सपनो वाली दुनिया भी घूम आता,
साथ उसके कोई | 

कोई तो देता उसका साथ उसको,
कुछ और लम्हों के लिए |
काश ! किसी की तो होती तलाश पूरी ,
उस अधूरी ज़िन्दगी को पाकर |

काश ! कोई समझ पाता कि...
कैसा लगता है उसे अकेले होते हुए भी ,
पूरा संसार जीकर |
अजीब नज़रों से उसे जब भी देखता है कोई ,
सैकड़ो सवालों से घिर जाती है वो |

काश ! उसकी नई सोच को ,
अपना लेता हर कोई आसानी से ,
तो न लड़ना पड़ता उसे हर पल ,
इस दुनिया कि नादानी से |

जब  भी उसके कदम घर कि देहलीज़ को पार करते हैं ,
रूढ़ियों की  कुछ बेड़ियाँ  उसे  जकड लेती हैं |
मीरा-राधा  कि दुहाई तो सब देते है ,
लेकिन उसके प्रेम को सब अपने सम्मान से जोड़ देते हैं |

चुप्पी को तोड़ देना चाहती है वो  ,
लेकिन उसका शोर इस भीड़ में  खो जाता है कहीं |
अपमान ही उसके जीना का आधार भी है,
और ज़िन्दगी कि मजबूरी भी |
ग़ुलामों के लिए तो कोई कानून भी नही,
हर अत्याचार है हमेशा उनपर सही |

स्त्री ऋण का सौदा तो अब ,
यहाँ हर बाज़ार में होता है |
लेकिन लक्ष्मी  को कोख कि तिजोरी ,
में रखना भी पाप समझा जाता है |

काशी ! अब तो हमें हमारे हिस्से का हक उन्हें  देदो,
उन्हें भी कुछ साँसे चैन से लेने दो |
गुज़र गया वो कल जब उन्हें ,
सिर्फ घर कि एक चीज़ के सामान समझा जाता था |

अपना लो इस शाश्वत सच को कि .....
वो अपनी हस्ती खुद बना सकती है |
पिंजड़े में कैद  चिड़िया  को अब उड़  जाने दो ,
उसे भी अपने पर आकाश में फ़ैलाने दो |
इस जमीं को भी अब ख़ुशी और सुकून  से 
अपनी दूसरी संतान को अपनाने लेने  दो |




Sunday 1 May 2011

कुछ ज़ख्म मेरे



कुछ ज़ख्म मेरे 








दिखने में तो मेरे ये ज़ख्म कुछ पुराने लगते है ,
न जाने फिर भी क्यों मन में कसक पुराने रखते है . 
दाग भी तो नही गया है अभी तक ,
और दर्द भी कम नही हुआ है आज तक.

लेकिन दिखने  में  तो मेरे ये ज़ख्म  कुछ पुराने लगते है ,
न जाने फिर भी क्यों मन में कसक पुराने रखते हैं .

कुछ दिन बीतते भी नही है और ,
कोई न कोई इसमें सुई चुभाकर चला जाता है .
लेकिन मेरे ये बाँवरे जख्म हमेशा दर्द ,
खुद में छुपाकर रह जाते हैं.


लेकिन दिखने  में  तो मेरे ये ज़ख्म कुछ  पुराने लगते है ,
न जाने फिर भी क्यों मन में कसक पुराने रखते हैं.


कुरेद देता है कोई बेमाना सा शख्स हमेशा इन्हें,
और लहू की कुछ बुँदे सर्राटे से बहार आ जाती हैं.
न जाने कब कोई मरहम  लगाने वाला  ,
मेरे इन ज़ख्मो  को भर जाएगा.

लेकिन दिखने  में  तो मेरे ये ज़ख्म कुछ  पुराने लगते है ,
न जाने फिर भी क्यों मन में कसक पुराने रखते हैं.

कैसी है ये दुनिया? 
क्यों नही भरने देती मुझे ?
मेरे ज़ख्मो के आंसुओं से भीगे नयन हर पल मुझसे पूछते है.
क्यों नही छोड़  देती मुझे ये अपने हाल पे ?
क्यों नही देती  है मुझे उत्तर मेरे हर सवाल पे ?


जब कभी भी मेरे ज़ख्म खो जाना चाहते हैं,
तब ही कोई अतीत की छूरी उस पर मार जाता है .
दर्द तो मैं खुद सह लूँ मगर ,
कभी-कभी मुझे उन ज़ख्मो पर तरस आता है.

लेकिन दिखने  में  तो मेरे ये ज़ख्म  कुछ पुराने लगते है ,
न जाने फिर भी क्यों मन में कसक पुराने रखते हैं

अब तो मैंने आशा ही छोड़ दी है  कि,
अब .यह कभी सुख भी पाएंगे .
तेज़ तलवार हाथों में लेके चलने वाली दुनिया से यह ,
न जाने  कबतक बच पाएंगे.

सत्य को मैंने तो स्वीकार लिया है,
और कुछ ही दिनों में  मेरे ज़ख्म भी स्वीकार ही लेंगे कि
या तो
"उन तेज़ धारों से खुद ही बच के चलो ..नही तो फिर किसी मासूम की  शरीर पर  खुद  ही सड़ो."



Wednesday 27 April 2011

भूली बिसरी यादें

भूली बिसरी यादें 



आज फिर किसी  रस्ते से गुज़रते वक़्त,

    मेरी यादों की किताब मुझे मिल गयी.....

पलट कर देखा कुछ पन्नो को 

         तोह उनमे मुझे अपनी दोस्ती  और ज़िन्दगी मिल गयी....

                                              लेकिन  खाली पन्नो को अभी ज़िन्दगी                                                   
 कि स्याही से और भरना है ...

                                         अब तो हमने  सिर्फ साथ  चलना शुरू किया है,                                                    
         आगे तो  हमें अभी कई  और बार मिलना है ......