Sunday 1 May 2011

कुछ ज़ख्म मेरे



कुछ ज़ख्म मेरे 








दिखने में तो मेरे ये ज़ख्म कुछ पुराने लगते है ,
न जाने फिर भी क्यों मन में कसक पुराने रखते है . 
दाग भी तो नही गया है अभी तक ,
और दर्द भी कम नही हुआ है आज तक.

लेकिन दिखने  में  तो मेरे ये ज़ख्म  कुछ पुराने लगते है ,
न जाने फिर भी क्यों मन में कसक पुराने रखते हैं .

कुछ दिन बीतते भी नही है और ,
कोई न कोई इसमें सुई चुभाकर चला जाता है .
लेकिन मेरे ये बाँवरे जख्म हमेशा दर्द ,
खुद में छुपाकर रह जाते हैं.


लेकिन दिखने  में  तो मेरे ये ज़ख्म कुछ  पुराने लगते है ,
न जाने फिर भी क्यों मन में कसक पुराने रखते हैं.


कुरेद देता है कोई बेमाना सा शख्स हमेशा इन्हें,
और लहू की कुछ बुँदे सर्राटे से बहार आ जाती हैं.
न जाने कब कोई मरहम  लगाने वाला  ,
मेरे इन ज़ख्मो  को भर जाएगा.

लेकिन दिखने  में  तो मेरे ये ज़ख्म कुछ  पुराने लगते है ,
न जाने फिर भी क्यों मन में कसक पुराने रखते हैं.

कैसी है ये दुनिया? 
क्यों नही भरने देती मुझे ?
मेरे ज़ख्मो के आंसुओं से भीगे नयन हर पल मुझसे पूछते है.
क्यों नही छोड़  देती मुझे ये अपने हाल पे ?
क्यों नही देती  है मुझे उत्तर मेरे हर सवाल पे ?


जब कभी भी मेरे ज़ख्म खो जाना चाहते हैं,
तब ही कोई अतीत की छूरी उस पर मार जाता है .
दर्द तो मैं खुद सह लूँ मगर ,
कभी-कभी मुझे उन ज़ख्मो पर तरस आता है.

लेकिन दिखने  में  तो मेरे ये ज़ख्म  कुछ पुराने लगते है ,
न जाने फिर भी क्यों मन में कसक पुराने रखते हैं

अब तो मैंने आशा ही छोड़ दी है  कि,
अब .यह कभी सुख भी पाएंगे .
तेज़ तलवार हाथों में लेके चलने वाली दुनिया से यह ,
न जाने  कबतक बच पाएंगे.

सत्य को मैंने तो स्वीकार लिया है,
और कुछ ही दिनों में  मेरे ज़ख्म भी स्वीकार ही लेंगे कि
या तो
"उन तेज़ धारों से खुद ही बच के चलो ..नही तो फिर किसी मासूम की  शरीर पर  खुद  ही सड़ो."



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