Wednesday 25 May 2011

काश !


काश !







काश ! कोई समझ पाता कि ...
कितना मुश्किल था उसके लिए ,
झूठी हंसी का पर्दा अपने चेहरे पर रखना |
कोई तो समझ पाता कि उसके अन्दर का ग़म ,
था कितना गहरा |

काश ! कोई समझ पाता कि....
अकेलेपन की  तस्वीर कैसी होती है,
कोई तो सुनता उसके ,
अनकहे शब्दों कि कहानी |

काश ! कोई सोच पाता कि ...
वो भी किसी राह पर अपने क़दमों क निशां ,
छोड़ रही है |
लकिन कोई यह सोचता भी कैसे कि,
काटों पे क़दमों के निशान कैसे दीखते होंगे |
कोई तो ये सोच लेता कि निशां उसके,
लहू के सबूत के साथ होंगे |

काश ! कोई तो जानने कि कोशिश करता,
मन की  बात उसकी |
वो हजारो सपनो वाली दुनिया भी घूम आता,
साथ उसके कोई | 

कोई तो देता उसका साथ उसको,
कुछ और लम्हों के लिए |
काश ! किसी की तो होती तलाश पूरी ,
उस अधूरी ज़िन्दगी को पाकर |

काश ! कोई समझ पाता कि...
कैसा लगता है उसे अकेले होते हुए भी ,
पूरा संसार जीकर |
अजीब नज़रों से उसे जब भी देखता है कोई ,
सैकड़ो सवालों से घिर जाती है वो |

काश ! उसकी नई सोच को ,
अपना लेता हर कोई आसानी से ,
तो न लड़ना पड़ता उसे हर पल ,
इस दुनिया कि नादानी से |

जब  भी उसके कदम घर कि देहलीज़ को पार करते हैं ,
रूढ़ियों की  कुछ बेड़ियाँ  उसे  जकड लेती हैं |
मीरा-राधा  कि दुहाई तो सब देते है ,
लेकिन उसके प्रेम को सब अपने सम्मान से जोड़ देते हैं |

चुप्पी को तोड़ देना चाहती है वो  ,
लेकिन उसका शोर इस भीड़ में  खो जाता है कहीं |
अपमान ही उसके जीना का आधार भी है,
और ज़िन्दगी कि मजबूरी भी |
ग़ुलामों के लिए तो कोई कानून भी नही,
हर अत्याचार है हमेशा उनपर सही |

स्त्री ऋण का सौदा तो अब ,
यहाँ हर बाज़ार में होता है |
लेकिन लक्ष्मी  को कोख कि तिजोरी ,
में रखना भी पाप समझा जाता है |

काशी ! अब तो हमें हमारे हिस्से का हक उन्हें  देदो,
उन्हें भी कुछ साँसे चैन से लेने दो |
गुज़र गया वो कल जब उन्हें ,
सिर्फ घर कि एक चीज़ के सामान समझा जाता था |

अपना लो इस शाश्वत सच को कि .....
वो अपनी हस्ती खुद बना सकती है |
पिंजड़े में कैद  चिड़िया  को अब उड़  जाने दो ,
उसे भी अपने पर आकाश में फ़ैलाने दो |
इस जमीं को भी अब ख़ुशी और सुकून  से 
अपनी दूसरी संतान को अपनाने लेने  दो |




Sunday 1 May 2011

कुछ ज़ख्म मेरे



कुछ ज़ख्म मेरे 








दिखने में तो मेरे ये ज़ख्म कुछ पुराने लगते है ,
न जाने फिर भी क्यों मन में कसक पुराने रखते है . 
दाग भी तो नही गया है अभी तक ,
और दर्द भी कम नही हुआ है आज तक.

लेकिन दिखने  में  तो मेरे ये ज़ख्म  कुछ पुराने लगते है ,
न जाने फिर भी क्यों मन में कसक पुराने रखते हैं .

कुछ दिन बीतते भी नही है और ,
कोई न कोई इसमें सुई चुभाकर चला जाता है .
लेकिन मेरे ये बाँवरे जख्म हमेशा दर्द ,
खुद में छुपाकर रह जाते हैं.


लेकिन दिखने  में  तो मेरे ये ज़ख्म कुछ  पुराने लगते है ,
न जाने फिर भी क्यों मन में कसक पुराने रखते हैं.


कुरेद देता है कोई बेमाना सा शख्स हमेशा इन्हें,
और लहू की कुछ बुँदे सर्राटे से बहार आ जाती हैं.
न जाने कब कोई मरहम  लगाने वाला  ,
मेरे इन ज़ख्मो  को भर जाएगा.

लेकिन दिखने  में  तो मेरे ये ज़ख्म कुछ  पुराने लगते है ,
न जाने फिर भी क्यों मन में कसक पुराने रखते हैं.

कैसी है ये दुनिया? 
क्यों नही भरने देती मुझे ?
मेरे ज़ख्मो के आंसुओं से भीगे नयन हर पल मुझसे पूछते है.
क्यों नही छोड़  देती मुझे ये अपने हाल पे ?
क्यों नही देती  है मुझे उत्तर मेरे हर सवाल पे ?


जब कभी भी मेरे ज़ख्म खो जाना चाहते हैं,
तब ही कोई अतीत की छूरी उस पर मार जाता है .
दर्द तो मैं खुद सह लूँ मगर ,
कभी-कभी मुझे उन ज़ख्मो पर तरस आता है.

लेकिन दिखने  में  तो मेरे ये ज़ख्म  कुछ पुराने लगते है ,
न जाने फिर भी क्यों मन में कसक पुराने रखते हैं

अब तो मैंने आशा ही छोड़ दी है  कि,
अब .यह कभी सुख भी पाएंगे .
तेज़ तलवार हाथों में लेके चलने वाली दुनिया से यह ,
न जाने  कबतक बच पाएंगे.

सत्य को मैंने तो स्वीकार लिया है,
और कुछ ही दिनों में  मेरे ज़ख्म भी स्वीकार ही लेंगे कि
या तो
"उन तेज़ धारों से खुद ही बच के चलो ..नही तो फिर किसी मासूम की  शरीर पर  खुद  ही सड़ो."